गुरुवार, 22 जून 2017

किस महीने में पैदा होने वाले लोगों को कौन सी बीमारी

वैज्ञानिकों का दावा है कि सितंबर में पैदा होने वाले सबसे अधिक बीमार होते हैं और जिन महिलाओं का जनम  जुलाई में हुआ है उन्हें ब्लड प्रेशर का खतरा 27% ज्यादा होता है.

यह दावा स्पेन के वैज्ञानिकों ने किया है। उन्होंने बताया है कि किस महीने में पैदा होने वाले लोगों को कौन सी बीमारी होती है। साथ ही महीनों के आधार पर ऐसी 27 बीमारियों की पहचान भी की है, जो पुरुष-महिलाओं में होती है।

वैज्ञानिकों के अनुसार सितंबर में पैदा होने बच्चे सबसे ज्यादा बीमार होते हैं। उन्हें गंभीर बीमारी का खतरा रहता है। सितंबर में पैदा होने वाले पुरुषों को सबसे ज्यादा थाॅयराइड की समस्या होती है। उनमें यह बीमारी जनवरी में पैदा होने वालों से 3 गुना ज्यादा होती है।

जून में पैदा होने वाले पुरुषों में 34% डिप्रेशन व 22% तक कमर दर्द होने का खतरा कम होता है। इसी तरह जुलाई में पैदा होने वाली महिलाओं में हाई ब्लड प्रेशर का खतरा 27% तक अधिक होता है, साथ ही वे 40% तक ज्यादा असंयमी होती हैं। जो महिलाएं जून में पैदा होती हैं, उनमें 33% माइग्रेन और 35% तक मेनोपॉस की समस्या का खतरा कम होता है।

यह दावा यूनिवर्सिटी ऑफ एलिकैंटे के वैज्ञानिकों ने 30 हजार लोगों पर अध्ययन के बाद किया है।

खोजकर्ता प्रोफेसर जोस एंटोनियो क्वेसडा कहते हैं 'अध्ययन में कई महत्वपूर्ण तथ्य मिले हैं, जिनसे पता चला कि किस तरह पैदा होने के महीने और बीमारियाें में आपस में संबंध हैं।

जैसे अल्ट्रावायलेट किरणें, विटामिन-डी, वायरस, एलर्जी आदि का, जोकि बच्चेदानी में शिशु के शुरुआती 1 महीने की जिंदगी प्रभावित करते हैं।'

यह हिसाब किताब कुछ यूं है!

शनिवार, 6 मई 2017

स्मार्टफोन, टैबलेट पर अधिक समय बिताने वाले बच्चे, देर से बोलना सीख पाते हैं.

एक अध्ययन में आगाह किया गया है कि स्मार्टफोन, टैबलेट और अन्य उपकरणों पर अधिक समय व्यतीत करने से बच्चे, देर से बोलना सीख पाते हैं.

स्मार्टफोन के चलते बच्चों में बढ़ रही आंखों में सूखेपन की समस्या शहर में वर्ष 2011 से 2015 के बीच किए गए इस अध्ययन में छह माह से दो वर्ष तक के 894 बच्चों को शामिल किया गया.

बच्चों के माता-पिता के अनुसार 18 माह तक की जांच में करीब 20 प्रतिशत बच्चों ने औसतन 28 मिनट तक इन उपकरणों का इस्तेमाल किया.

भाषायी सीख में देरी से जुड़ी जांच में अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि अभिभावकों ने बच्चों के उपकरण की इस्तेमाल की अवधि जितनी अधिक बताई, उनके बच्चों के बोल सकने में उतनी ही देरी पायी गयी.

अनुसंधान में पाया गया है कि स्क्रीन टाइम में हर 30 मिनट की देरी पर बोल सकने में विलंब का खतरा 49 प्रतिशत तक बढ़ जाता है.

शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

फेसबुक के ज्यादा इस्तेमाल से आ सकता है आत्महत्या का विचार

एक शोध में पाया गया है कि फेसबुक सहित ट्वीटर और इंस्टाग्राम जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर प्रतिदिन ज्यादा लंबे समय तक प्रयोग से किशोरों में आत्महत्या की भावना बढ़ाने वाले विचारों, मनोवैज्ञानिक परेशानियों और मानसिक विकारों के बढ़ने का खतरा रहता है और यह उनके मानसिक स्वास्थ्य को भी खराब करता है. 

शोधार्थियों का कहना है कि जो किशोर लंबे समय तक सोशल नेटवर्किंग साइट्स का प्रयोग करते हैं उन्हें मानसिक स्वास्थ्य सहायता की जरूरत है. 

इस अध्ययन से साफ हुआ है कि फेसबुक के ज्यादा इस्तेमाल से ही युवाओं के बीच खुदकुशी जैसे विचार बढ़ते है और मानसिक परेशानियां भी जन्म लेती हैं जिससे मानसिक स्थिति प्रभावित होती है. 



अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि इस अध्ययन के जरिए माता पिता को अच्छा संदेश मिल रहा है. उनके मुताबिक यह नतीजे मानसिक स्वास्थ्य सहायक सेवाओं को भी आगाह करते हैं. उन्हें इन वेबसाइट्स को ध्यान में रखना होगा. 

कनाडा में ओटावा पब्लिक हेल्थ के ह्यूग्यूस सांपसा-कयिंगा और रोजमंड लुईस ने सातवीं से 12वीं कक्षा तक के छात्रों के ओंटेरियो छात्र दवा उपभोग एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण आंकड़ों का विश्लेषण किया. इनमें से लगभग 25 प्रतिशत छात्रों को दो घंटे से ज्यादा सोशल नेटवर्किंग साइट्स प्रयोग करने का आदी पाया गया. 

शोधार्थियों ने सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बिताए वक्त की तुलना किशोरों के मनौवैज्ञानिक परीक्षणों और आवश्यक मानसिक स्वास्थ्य सहायता की जरूरतों से की. 

यह अध्ययन साइबर साइकलोजी, बिहेवियर एंड सोशल नेटवर्किंग जर्नल में प्रकाशित हुआ है. जिसे यहाँ क्लिक कर देखा पढ़ा जा सकता है

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

फेसबुक पर सेल्फी पोस्ट करने वाले दोस्तों से दूर हो जाते हैं

फेसबुक पर सेल्फी पोस्ट करने की आदत आपको दोस्तों, रिश्तेदारों और सहयोगियों से दूर कर सकता है. यह वैज्ञानिकों का कहना है. 

उनके मुताबिक वो लोग जो फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया प्लटफॉर्म पर बहुत ज्यादा सेल्फी या अपनी फोटो फोस्ट करते हैं वे धीरे-धीरे अपने लोगों से दूर हो जाते हैं. 

इंग्लैंड के नामी रिसर्चर डेविड हाउटन ने जो बर्मिंघम बिजनेस स्कूल से जुड़े हुए हैं, कहा कि जो लोग अपनी फोटो लगातार पोस्ट करते रहते हैं, लोगों से कट जाते हैं. उनके बहुत नजदीकी रिश्तेदार ही ये सब पसंद करते हैं. 


उन्होंने कहा कि हम जो फोटो पोस्ट करते हैं वे कई तरह के लोग देखते हैं जिनमें पार्टनर, दोस्त, परिवार, सहयोगी और परिचित होते हैं. ये सभी इस तरह के फोटो और सूचना के बारे में अलग-अलग विचार रखते हैं. 

इस शोध में पाया गया कि जो लोग परिवार की तुलना में दोस्तों की ज्यादा फोटो पोस्ट करते है, उन्हें उतना समर्थन नहीं मिलता. 

इतना ही नहीं, लोग फेसबुक के उन दोस्तों के बारे में निगेटिव ख्याल रखते हैं जो बड़े ब्रांडों के साथ अपनी फोटो ज्यादा पोस्ट करते हैं.

बुधवार, 2 जुलाई 2014

फेसबुक पर पल पल पोस्ट करने वाले पसंद नहीं

हाल ही प्रकाशित हुए एक नई किताब, द साइंस ऑफ रिलेशनशिप में एक हैरान कर देने वाला सर्वे सामने आया है।

मिरर में छपी खबर के अनुसार जो लोग अपने स्टेसस पर किसी से जुड़े होने की बात कुबूलते हैं, तो उन्हें फेसबुक पर लोगों के बीच कम पसंद किया जाता है। अगर आप अपने जीवनसाथी के साथ कई तस्वीरें खिंचवाकर अक्सर फेसबुक पर पोस्ट करते रहते हैं तो लोग उसे लाइक करने में भी सोचते हैं। 



इस शोध के लिए शोधकर्ताओं ने 200 लोगों को भाग लेने को कहा। उन्हें कई लोगों की नकली फेसबुक प्रोफाइल्स दी गई और उनमें से अपनी पसंद की प्रोफाइल को चुनने को कहा।

रिसर्च में 70 प्रतिशत ऐसे थे जिन्होंने ऐसे लोगों को पसंद नहीं किया जो ‌रिलेशनशिप में थे और अपने पार्टनर के साथ अपनी तस्वीरें बहुत डालते थे।

रिसर्च में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं थी जिन्हें वो लोग भी कत्तई पसंद नहीं थे जो पल-पल कोई न कोई नई पोस्ट डालते रहते थे।

कहीं आप भी ऐसे पोस्ट नहीं डाल रहे ना? वैसे यह किताब यहाँ पाई जा सकती है

शनिवार, 25 जनवरी 2014

फेसबुक है प्लेग जैसी बीमारी: 2017 तक हो जाएगी ख़त्म

अमेरिकी वैज्ञानिकों के एक समूह का कहना है कि तीन साल में फेसबुक अपने 80 फीसदी उपयोगकर्ता खो देगी और बहुत जल्द "ब्यूबॉनिक प्लेग" जैसी खतरनाक बीमारी की तरह इसका भी जड से खात्मा हो जाएगा।

एक अखबार के मुताबिक, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने फेसबुक की लत की तुलना प्लेग की बीमारी से की है। उनका दावा है कि फेसबुक खतरनाक संक्रामक बीमारी की तरह फैली लेकिन अब लोग फेसबुक के प्रति आकर्षण कम होने लगा है, या यूं कहा जाए कि फेसबुक के प्रति एक किस्म की इम्युनिटी लोगों में आ गई है। उनके मुताबिक, 2017 तक फेसबुक को ज्यादातर लोग छोड देंगे। 

4 फरवरी को ही फेसबुक को 10 साल पूरे हो रहे हैं। 


गूगल सर्च में फेसबुक को कितनी बार टाइप किया जाता है, इस आधार पर शोधकर्ता जॉन कैनरेला और जोशुआ स्पेचलर ने यह अनुमान लगाया है। उन्होंने पाया कि दिसंबर 2012 के मुकाबले फेसबुक सर्च में कमी आई है। 

शोधकर्ताओं के शोध पत्र के मुताबिक, "बीमारी जैसी चीजें संक्रमण की तरह लोगों में फैलती हैं, लेकिन एक समय ऎसा आता है कि उनकी मौत हो जाती है। इन को महामारी विज्ञान के मॉडल की तरह समझा जा सकता है। फेसबुक यूजर्स के ताजा आंकडे अक्टूबर में जारी हुए थे।

इसके मुताबिक सोशल साइट को करीब 120 करोड लोग इस्तेमाल कर रहे हैं। हालांकि कंपनी के चीफ फाइनेंशियल ऑफिसर डेविड एबर्समैन ने माना है कि पिछले तीन महीनों में उनके उपयोगकर्ता, खास तौर से किशोर उपयोगकर्ताओं की संख्या घटी है। 

वेब जानकारों के मुताबिक, फेसबुक के डेस्कटॉप ट्रैफिक में कमी की एक वजह यह भी हो सकती है कि लोग अब मोबाइल पर इंटरनेट इस्तेमाल करने लगे हैं। एक अनुमान के मुताबिक, 87 लाख लोग अपने स्मार्टफोन से हर महीने फेसबुक इस्तेमाल करते हैं। इसलिए गूगल पर उन्हें फेसबुक टाइप करने की जरूरत नहीं पडती।

बुधवार, 25 जनवरी 2012

काली चाय से दिल का दौरा, ब्लड प्रेशर, डायबिटीज़ काबू किया जा सकता है

शोधकर्ताओं का मानना है कि प्रतिदिन तीन प्याला चाय लेने से दिल के दौरे का खतरा 60 प्रतिशत तक कम हो जाता है और मधुमेह का खतरा भी टलता है। उनका कहना है कि चाय में स्वास्थ्यवर्धक एंटीऑक्सीडेंट्स मौजूद होते हैं जो दिल के दौरे से बचाने में मददगार हो सकते हैं। 

हाल ही में हुए अध्ययन में यह पाया गया है कि काली चाय ज्यादा फायदेमंद होती है। नियमित रूप से चाय का सेवन धमनियों में खून का थक्का जमने से रोकता है। इससे रक्तचाप नियंत्रित होता है और रक्त वाहिनियां खतरनाक तरीके से संकुचित नहीं होतीं। इस तरह से चाय दिल के दौरे के खतरे को कम करती है। दरअसल रक्त वाहिनियों के जरिए दिल की मांसपेशियों को ऑक्सीजन मिलती है और जब इनका मार्ग अवरुद्ध होता है तो दिल के दौरे का खतरा बढ़ता है।

कैरी रक्सटन व पामेला मैसन ने 40 शोधपत्रों की समीक्षा की थी। यह समीक्षा 'यूके न्यूट्रीशन बुलेटिन' में प्रकाशित हुई। इसमें काली चाय और रोगों की रोकथाम के बीच सम्बंध स्थापित किया गया है। रक्सटन व मैसन ने पाया कि जो लोग दिनभर में तीन से छह कप चाय लेते हैं उनमें चाय न पीने वालों या कम चाय पीने वालों की तुलना में दिल के रोगों का खतरा 30 से 57 प्रतिशत तक कम हो जाता है। 

रक्सटन ने कहा, "प्रमाण बताते हैं कि नियमित रूप से काली चाय का सेवन करने से रक्त परिसंचरण तंत्र से सम्बंधित बीमारियों व टाइप 2 प्रकार के मधुमेह का खतरा कम होता है।" शोधकर्ताओं ने कहा कि चाय की कितनी मात्रा फायदेमंद है, यह पता लगाने के लिए शोध की आवश्यकता है लेकिन हर रोज तीन से छह प्याला काली चाय लेना आपके दिल के स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। 

इसके अलावा भी वेस्टर्न आस्ट्रेलिया यूनिवर्सिटी के अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि जो लोग दिन में तीन बार बिना दूध की चाय पीते हैं वे अपने रक्तचाप को औसतन दो से तीन प्वाइंट तक नियंत्रित करने में सफल रहते हैं. हो सकता है इतना नियंत्रण काफी न लगे लेकिन यह उच्च रक्तचाप के होने अथवा दिल की बीमारी के जोखिम को रोकने के लिये अत्यधिक प्रभावी है. 

अध्ययन के लेखक जोनाथन हागसन के हवाले से वैबएमडी ने बताया कि पहली बार पता लगा है कि लंबे समय तक काली चाय के इस्तेमाल से उच्च रक्तचाप वाले लोगों में इसके असर से रक्तचाप में दस प्रतिशत गिरावट आ सकती है और दिल के रोग तथा दिल के दौरे का खतरा भी दस प्रतिशत कम हो जाता है. 

अध्ययन का ब्योरा आर्काइव्स इंटरनल मेडिसिन में प्रकाशित हुआ है. 

एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि चाय में पाया जाने वाले फ्लेवानोइड्स से रक्त नलिका की क्रिया में सुधार आता है और शरीर का वजन तथा पेट की वसा कम होती है.

शनिवार, 21 जनवरी 2012

महिला का नाम लेने भर से ही पुरुषों की बुद्धि पर ताला

ये कोई नई बात नहीं ऐसा तो सदियों से जाना और माना जाता हैं. आप भी जानिए, हाल ही का एक अध्ययन बताता है कि किसी खूबसूरत महिला का सिर्फ नाम लेने भर से ही पुरुषों की बुद्धि पर ताला लग जाता है। 

नीदरलैंड्स की रेडबाउड यूनिवर्सिटी के एक शोध में खुलासा हुआ है कि एसएमएस या ईमेल में किसी महिला के नाम की मौजूदगी ही पुरुषों की बुद्धि को प्रभावित करने के लिए काफी है। 

मिलर-मैकक्यून के अनुसार संज्ञानात्मक परीक्षणों की श्रृंखला में 90 पुरुष एवं महिलाओं को शामिल किया गया। न्यूरोसाइक्लॉजिकल परीक्षणों में इस्तेमाल होने वाले स्ट्रूप टेस्ट का इस अध्ययन में प्रयोग किया गया। इसके अलावा प्रतिभागियों को लिप-रीडिंग टास्क दिया गया, इसमें उनसे वेबकैम के सामने कुछ शब्द ऊंची आवाज में पढ़ने को कहा गया।

इन दोनों परीक्षणों के दौरान पुरुषों के हाव-भाव को नोटिस किया गया। इसके बाद पुरुष प्रतिभागियों को बताया गया कि महिलाएं उनकी गतिविधियों को गौर से देख रही हैं। तब पुरुषों॒ के हाव-भाव में जो बदलाव हुआ उसे अध्ययनकर्ताओं ने नोट किया। जबकि इन परीक्षणों का महिलाओं पर कोई असर नहीं पड़ा। इसी आधार पर यह नतीजा निकाला गया कि सामान्य परिस्थितियों में महिलाओं को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किससे बात कर रही हैं। 

शोध के प्रमुख, मनोचिकित्सक जॉन कैरमेन्स ने बताया कि-‘अचानक किसी महिला के बारे में बात होने पर पुरुषों की संज्ञानात्मक॒ शक्ति बिगड़ जाती है।’ 

अध्ययन के दौरान पुरुष प्रतिभागियों ने यह तक जानना जरूरी नहीं समझा कि वो कौन सी महिला है, जो उन॒ पर नजर रख रही है। 

कैरमेन्स॒ यह भी बताते हैं कि ऐसे मामलों पर महिलाओं की खूबसूरती की जानकारी नहीं होने के बावजूद भी पुरुष॒ प्रभावित हो जाते हैं।

संबंधित रिपोर्ट यहाँ पढ़ी जा सकती है 

शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों से ऊबने लगे लोग

प्रमुख भारतीय उद्योग संगठन एसोचैम द्वारा 12 से 25 आयुवर्ग के दो हजार बच्चों और युवाओं पर कराए सर्वेक्षण के आधार पर यह बात कही गई है कि देश के लोग अब फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइटों से ऊबने लगे हैं। इस शोध के मुताबिक, इन साइटों पर शुरुआती दिनों में वे जितनी बार आते थे, उसके मुकाबले अब वे कम लॉग इन करने लगे हैं। जो इन साइटों पर आते हैं, उनमें ज्यादातर पहले के मुकाबले कम समय बिताते हैं। 
 
सर्वे के मुताबिक, देश के शहरी इलाकों में सोशल मीडिया के प्रति दिलचस्पी घटी है। अब वे सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों पर कम समय दे रहे हैं। ये सर्वे अहमदाबाद, बेंगलूर, चंडीगढ़, चेन्नई, दिल्ली-एनसीआर, हैदराबाद, कोलकाता, लखनऊ, मुंबई और पुणे में पिछले साल अक्टूबर और दिसंबर के बीच कराया गया।

भले ही सोशल नेटवर्किंग आज भी सबसे बड़ी ऑनलाइन सक्रियता हो, लेकिन अब लोग इसे बोरिंग, कंफ्यूजिंग और डिप्रेशन देने वाली एक्टिविटी मानने लगे हैं। वे सोशल नेटवर्किंग साइटों पर जाने की जगह सूचना देने वाली साइट्स, ई-मेल और गेमिंग ज्यादा पसंद करने लगे हैं.  अपने वॉल पर लिखे गए कॉमेंट्स या दूसरे कंटेंट पर ये बेहद कम प्रतिक्रिया देने लगे हैं।

अधिकांश ने कहा कि फेसबुक सरीखी सोशल मीडिया के लगातार इस्तेमाल से आपसी बातचीत में कमी आ रही है। सेहत पर भी असर पड़ा है। एकाग्रता में कमी, अनिंद्रा, डिप्रेशन, बेचैनी, चिड़चिड़ेपन की शिकायत हुई है। इस वजह से वे ऑनलाइन सोशल मीडिया की जगह वास्तविक जीवन में सामाजिक संपर्क बढ़ा रहे हैं।

दिल्ली में जिन 200 लोगों से सवाल पूछे गए, उनमें से करीब 65 प्रतिशत का मानना था कि लगातार बेमतलब के स्टेटस अपडेट्स और एक जैसी चीजों को देख-देख कर हम बोर हो चुके हैं।

उन्होंने अपनी डिजिटल पहचान बढ़ाने के बजाय अन्य महत्वपूर्ण चीजों पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। अब वे अपने पसंदीदा सोशल नेटवर्क को लेकर उतने उत्साहित नहीं हैं जितना शुरुआती दिनों में हुआ करते थे।

30 फीसदी ने कहा कि उन्होंने सोशल मीडिया पर अपने अकाउंट को या तो निष्क्रिय या फिर डिलीट कर दिया है। अब उन्हें इसमें रुचि नहीं है, जबकि कुछ का कहना है कि सोशल नेटवर्किंग के चलते उनकी निजता में खलल पड़ रही थी, इस वजह से उन्होंने इसका इस्तेमाल कम कर दिया है।

20 फीसदी लोगों का कहना है कि अब वे इन वेबसाइटों की बजाए अपने दोस्तों के संपर्क में रहने के लिए ब्लैकबेरी, मैसेंजर और मोबाइल की अन्य सुविधाओं का प्रयोग करना अधिक पसंद करते हैं।
 
सर्वे में 12- 25 साल के 2,000 से ज्यादा युवाओं से बातचीत की गई। इनमें लड़के-लड़कियों की तादाद बराबर थी। सर्वे में एक और दिलचस्प बात सामने आई कि लड़कों की तुलना में लड़कियां इन सोशल नेटवर्किंग साइटों पर अधिक संख्या में इकट्ठा होती हैं।

बुधवार, 18 जनवरी 2012

फेसबुक के दीवाने होते हैं अंदर से दुखी

जो लोग सोशल नेटवर्किंग साइट्स फेसबुक को दीवानों की तरह चाहते हैं उनके लिए एक बुरी खबर है। एक शोध के मुताबिक जो लोग फेसबुक को दिन में कई बार लॉगइन करते हैं उनके अंदर दुखी रहने की प्रवृत्ति ज्यादा पायी जाती है।

समाचार पत्र 'डेली मेल' ने ऊटा वैली विश्वविद्यालय द्वारा किए गए अध्ययन के आधार पर  लिखा है कि जो लोग फेसबुक को दिन में कई बार प्रयोग करते हैं उनके अंदर फेसबुक का उपयोग ना करने वालों की तुलना में खुश रहने की आदत कम पायी जाती है। 

अध्ययन में यह बात सामने आई कि फेसबुक प्रयोग करने वाले लोगों में अपने पेज पर हंसते मुस्कराते चेहरे लगाने की प्रवृत्ति होती है, जिसके माध्यम से वे दूसरों को कमजोर संदेश देने की कोशिश की जाती है। ऐसे लोगो में यह चीज भी देखी गयी है कि वो इस बात को मानना भी नहीं चाहते है कि वो अंदर से दुखी है। 

दूसरों की हंसती मुस्कुराती अच्छी अच्छी फोटो देख कर ऐसे लोग यह मानते हैं कि सामने वाले की तुलना में वे हीन हैं और कुढ़ना शुरू कर देते हैं जिसका परिणाम कई बार टिप्पणियों में झलकने लगता है. 


इसके उलट, जो लोग वास्तविक जीवन में सामाजिक होते हैं वे आभासी दुनिया में जीने वाले लोगों की तुलना में कम दुखी होते हैं। यह निष्कर्ष वैज्ञानिक पत्रिका 'साइबरसाइकोलॉजी, बिहैवियर एंड सोशल नेटवर्किंग' में प्रकाशित हुआ है।

ऎसी ही एक रिपोर्ट पिछले वर्ष भी आई थी जिसे एंटी सोशल नेटवर्क का शीर्षक दिया गया था. 

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

फेसबुक के सहारे रची जा रही है आतंकी साजिश

एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि दुनिया भर में अधिकांश संगठित आतंकी गतिविधियाँ का लगभग 90 फीसदी काम अब सामाजिक नेटवर्किग वेबसाइट के जरिए हो रहा है। फेसबुक जैसे फोरम पर आतंकी फर्जी नाम से प्रोफाइल बनाकर लोगों के व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां हासिल कर रहे हैं।

इजरायल स्थित हाफिया विश्वविद्यालय के संचार विभाग में प्रोफेसर गैब्रिएल वीमैन के अनुसार इन अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी प्रणालियों का इस्तेमाल कर आतंकी गुट नए दोस्त बना रहे हैं और इसकी कोई भौगोलिक सीमाएं नहीं हैं।



उन्होंने बताया कि फेसबुक, चैटरूम, यूट्यूब और अन्य ऐसी ही वेबसाइटों ने इंटरनेट की दुनिया में क्रांति ला दी और आतंकी गुट इस्लामिक आतंकी संगठन इनका जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। सामाजिक मीडिया के जरिए आतंकी संगठन फ्रेंड्स रिक्वेस्ट [दोस्ती के लिए आग्रह] भेजते हैं और नए दोस्त बनाकर उन्हें अपनी विचारधारा के प्रति समर्थन के लिए मनाने का प्रयास करते हैं। वे वीडियो क्लिप भी ऐसी वेबसाइटों पर अपलोड कर रहे हैं।

वीमैन ने भारत सहित दुनिया भर की आतंकी गतिविधियों पर काफी कार्य किया है और इस विषय पर न सिर्फ उनकी कई किताबें हैं बल्कि कई अनुसंधान पत्र भी प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने पासवर्ड से सुरक्षित की गई वेबसाइटों का भी दशक भर से अधिक समय तक अध्ययन किया है।

वीमैन ने दावा किया कि आतंकी गुट फेसबुक का दोहरा इस्तेमाल करते हैं। एक तो इसके जरिए वे नए सदस्यों की भर्ती करते हैं, दूसरे यह उनके लिए खुफिया जानकारी हासिल करने का मंच भी साबित होता है।

वीमैन के मुताबिक अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन जैसे देशों ने अपने सशस्त्र बलों को निर्देश दिया है कि वे फेसबुक खाते से सभी व्यक्तिगत जानकारिया हटा दें ताकि अल कायदा जैसे संगठन संवेदनशील सूचनाओं तक पहुँच न हासिल कर सकें।

हालांकि फेसबुक के कई सदस्य इस बात की परवाह नहीं करते कि वे किसके फ्रेंडशिप ऑफर [दोस्ती की पेशकश] को स्वीकार कर रहे हैं और किसे अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में संवेदनशील जानकारिया बाट रहे हैं। आतंकी भी समानांतर रूप से फर्जी प्रोफाइल बनाते हैं, जिससे वे अधिकाधिक उपयोग होने वाली सामाजिक नेटवर्किंग वेबसाइटों तक एक्सेस बना लेते हैं।

वीमैन ने बताया कि हमास की सैन्य विंग के ओपन फोरम में वेबसाइट पर दोस्तों के बीच कुछ इस तरह की बातें भी होती हैं, मैं जानना चाहता हूं कि सेना की जीप उड़ाने के लिए विस्फोटक कैसे बनाया जाए। उन्होंने बताया कि यह सवाल करने वाले को सवाल का जवाब तत्काल मिला और उसे विस्तृत निर्देश भी हासिल हुए।

इस बारे में हाफिया विश्वविद्यालय की रिपोर्ट यहाँ देखी जा सकती है

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शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

फेसबुक बदल रहा है दिमाग की संरचना


हाल ही में हुए एक अध्ययन में दावा किया गया है कि सोशल नेटवर्किंग साइट पर ढेर सारे दोस्तों वाले व्यक्तियों के दिमाग में एक खास तरह का पदार्थ ज्यादा सघन पाया जाता है जिससे इस बात की संभावना बढ़ी है कि इस तरह के साइट लोगों के दिमाग को बदल रहे हैं।

लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज के अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि जिन व्यक्तियों के फेसबुक पर बहुत ज्यादा दोस्त होते हैं, उनमें दिमाग के कुछ हिस्सों में कम ऑनलाइन दोस्तों वालों की तुलना में ज्यादा ग्रे पदार्थ पाया जाता है। दिमाग के ये क्षेत्र नामों और चेहरों को याद रखने की क्षमता से जुड़े होते हैं।

प्रोसिडिंग्स ऑफ रॉयल सोसाइटी बायोलोजिकल साइंसेज में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया कि या तो सोशल नेटवर्किंग साइट दिमाग के इन भागों को बदल देते हैं या इस तरह के दिमाग के साथ पैदा लेने वाले व्यक्ति फेसबुक जैसी वेबसाइट पर अलग व्यवहार करते हैं।

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

दूध पी रहें हैं या रसायनों का कॉकटेल?

सुबह का नाश्ता हो या फिर रात का भोजन, सेहत और तंदुरस्ती की गारंटी है गर्मागरम दूध का एक गिलास। आप सोचते हैं दूध का एक गिलास गटक लिया तो मानो सेहत का खजाना मिल गया लेकिन वैज्ञानिकों के ताजा अध्ययन में सफेद दूध का जो काला सच सामने आया है उसे जानकर आप हैरान रह जाएंगे।

अब अगर दूध में मिलावट कुदरती तौर पर होने लगे तो आप क्या करेंगे? चौंकिए नहीं, दूध में शरीर के लिए जरूरी प्रोटीन, विटामिन और फैट्स ही नहीं बल्कि दूध में एंटीबॉयोटिक, दर्दनिवारक, हॉरमोन और इसी तरह की कई दवाइयों का भी घुसपैठ हो चुकी है जो इंसान और जानवरों की गंभीर बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल होता है।


स्पेन और मोरक्को के वैज्ञानिकों ने एक अतिसंवेदनशील जांच में पाया कि एक गिलास दूध में नाइफ्लूमिक एसिड, मेफेनामिक एसिड, किटोप्रोफेन, डाय़क्लोफेनाक, फेनिलबुटाजोन जैसे दर्दनिवारक दवाइयां, फ्लोरफेनिकॉल जैसी एंटीबॉयोटिक दवाई और एस्ट्रोजन, एस्ट्राडायल, एथिनायलएस्ट्राडायल जैसे हॉरमोन भी मौजूद हैं।

दूध में नैपरोक्सेन, फ्लूनिक्सिन, डायक्लोफेनाक जैसी ताकतवर दर्दनिवारक दवाइयां भी मिली, जिनका इस्तेमाल इंसान और जानवरों में हड्डी की गंभीर बीमारियों में होता है। दूध में पायरीमेथामाइन जैसी एंटी मलेरिया ड्रग और ट्रायक्लोसान जैसी एंटी फंगल ड्रग की भी घुसपैठ हो चुकी है। हालांकि जांच में पता चला है कि दूध में इन दवाओं की मात्रा बेहद कम है और इसका असर इंसान पर नहीं होता लेकिन लंबे समय तक दूध पीने से इसके गंभीर नतीजे हो सकते हैं।

नाइफ्लूमिक एसिड से अल्सर, सांस की बीमारी, खून की कमी हो सकती है तो मेफेनामिक एसिड सिरदर्द, डायरिया, गैस्ट्रोइंटेस्टाइन बीमारियों का कारण बन सकता है। किटोप्रोफेन से अल्सर, किडनी की बीमारी, डाय़क्लोफेनाक से दिल और लिवर की बीमारी हो सकती है। फेनिलबुटाजोन से अल्सर, किडनी की बीमारी हो सकती है तो फ्लोरफेनिकॉल जैसी एंटीबॉयोटिक दवाई डायरिया पैदा कर सकती है।

एस्ट्रोजन से अल्सर, दिल की बीमारी तो एस्ट्राडायल से हड्डी और लिवर की बीमारी हो सकती है। एथिनायलएस्ट्राडायल जैसे हॉरमोन से दिल और त्वचा की बीमारी हो सकती है। नैपरोक्सेन, फ्लूनिक्सिन, डायक्लोफेनाक जैसी दर्दनिवारक दवाइयों से अल्सर और दर्द की बीमारियां हो सकती हैं तो पायरीमेथामाइन जैसी एंटी मलेरिया ड्रग ब्लड कैंसर और ट्रायक्लोसान जैसी एंटी फंगल ड्रग से एलर्जी हो सकती है।

खतरा इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि जांच में गाय के दूध में सबसे ज्यादा इन दवाओं की मात्रा पाई गई। वैज्ञानिकों का मानना है कि अब इंसान के बनाए केमिकल और दवाइयां, खाने की हर चीज में पहुंच गए हैं और इसलिए इनके असर की जांच बेहद जरूरी हो गई हैं।

अब सवाल यह सामने आता है कि गाय, बकरियों के दूध में गंभीर बीमारियों का इलाज करने वाली दवाइयां कहां से आईं। इस सवाल के जवाब में छुपा है वो खतरनाक सचाई जो धरती के हर जीव के लिए खतरा बन गई है। दरअसल इंसान के बनाए रसायन और दवाइयां, धरती की आबोहवा में जहर की तरह घुल गई हैं जिसका खतरनाक असर लगातार दिख रहा है।

मामला बेहद चौंकाने वाला है, लेकिन यही हकीकत है। इंसानों की बनाई केमिकल और दवाइयां धीरे धीरे धरती की पूरी आबोहवा में जहर की तरह घुलती जा रही है और इसके बेहद खतरनाक नतीजे सामने आ रहे हैं। इंग्लैंड के पोर्ट्समाउथ तट पर नर मछलियां अचानक अंडे देने लगी। मछलियों में आय़ा ये परिवर्तन हैरान करने वाला था। वहीं भारत और दक्षिण अफ्रीका में गिद्ध की आबादी में आई कमी भी आबोहवा में घुलती दवाओं का ही नतीजा है। नर मछलियों के अंडे देने का कारण कंट्रासेप्टिव पिल के वो हॉरमोन हैं जो समुद्र में पाए गए।

वहीं घोड़ों के लिए बनी दर्दनिवारक दवा डायक्लोफेनाक गिद्ध की मौत का कारण बन रहीं क्योंकि मरे हुए घोड़ों को खाने के बाद गिद्ध भी बेमौत मर रहे। दरअसल जांच मे पता चला है कि दवाइयां और रसायन धरती के फूड चेन में मिलकर खाने की हर चीज तक पहुंच चुके हैं। इन दवाओं का अंश घर के सीवर से होते हुए नदी और समुद्र तक पहुंच रहा। पानी में पहुंच कर ये दवाइंया फिर खेतों और अनाजों तक पहुंचती है और इस तरह एक श्रंखला बन जाती है।

यानी बीमारियां दूर करने वाली दवाएं ही बीमारी और मौत बांट रही और ये सिलसिला हर दिन तेज होता जा रहाहै।

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शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

सिगरेट पीने वालों के बीच पलने वाले बच्चे मानसिक रोगी हो जाते हैं

एक नए शोध के अनुसार जिन बच्चों का पालन-पोषण धूम्रपान करने वालों के बीच होता है उनमें मस्तिष्क संबंधी बीमारियां होने की संभावना ज्यादा रहती है। हार्वर्ड के शोधकर्ताओं के अध्ययन के मुताबिक ऐसे बच्चे जो धूम्रपान करने वालों के बीच में बड़े होते हैं उनमें मस्तिष्क संबंधी बीमारियों मसलन सीखने में समस्या का सामना करना, एकाग्रता का अभाव और अत्यधिक सक्रियता जैसी बीमारियों के होने की ज्यादा आशंका रहती है।

इस शोध में पाया गया कि ऐसे बच्चे जिनके माता पिता अथवा परिवार के सदस्य धूम्रपान करते हैं उनमें से लगभग 50 प्रतिशत किसी समस्या से ग्रसित पाये गये. इसमें सीखने में समस्या का सामना करना, व्यवहार संबंधी समस्या और एकाग्रता का अभाव जैसी समस्याएं शामिल थी। धूम्रपान करने वालों के साथ रहने वाले 20.4 प्रतिशत बच्चे कम से कम एक मानसिक रोग से ग्रसित पाये गये।

शनिवार, 9 जुलाई 2011

हर तीसरी भारतीय पत्नी पिटती है और पिटना सही भी मानती है

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 35 प्रतिशत महिलाएं हिंसा का शिकार होती हैं जबकि दस प्रतिशत महिलाओं के साथ उनके पार्टनर ही यौन हिंसा करते हैं। नई दिल्ली में जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 39 प्रतिशत पुरुष और महिलाएं यह भी मानते हैं कि पति का पत्नी को पीटना ‘कभी कभी या हमेशा’ सही होता है। संयुक्त राष्ट्र महिला नाम से नवगठित संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था ने यह रिपोर्ट प्रकाशित की है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन महिलाओं से बात की गई है उनमें से 35 प्रतिशत के अनुसार उनके पार्टनर (पति या पार्टनर) उन्हें शारीरिक रुप से प्रताडित करते हैं. इनमें से से दस प्रतिशत का कहना था कि उनके पति या पार्टनर भी उन्हें यौन हिंसा का शिकार बनाते हैं। इस रिपोर्ट में एक गैर सरकारी संस्था द्वारा किए गए सर्वे के हवाल से कहा गया है कि 68 प्रतिशत महिलाएं मानती हैं कि उत्तेजक कपड़े पहनना बलात्कार को बुलावा देना होता है। संयुक्त राष्ट्र की यह संस्था दुनिया भर में महिलाओं की स्थिति की जानकारी जुटाती है।

संस्था ने भारतीय न्याय व्यवस्था में महिलाओं की मात्र तीन प्रतिशत भागीदारी की कड़ी आलोचना की है। इस वैश्विक रिपोर्ट के अनुसार भारत महिला जजों के मामले में बहुत पीछे हैं. यहां सिर्फ तीन प्रतिशत जज महिलाएं हैं और देश के हर कोर्ट में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है। यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र महिला की सह महासचिव लक्ष्मी पुरी ने जारी की। उनका कहना था कि प्रभावितों को न्याय दिलाने के लिए लैंगिक समानता अत्यंत ज़रुरी है लेकिन भारत की न्याय व्यवस्था में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम होना निराशाजनक स्थिति दर्शाता है। रिपोर्ट के अनुसार पुलिस और जजों में महिलाओं के प्रति भेदभाव के रवैय्ये के कारण कई बार महिलाएं हिंसा की रिपोर्ट लिखाने में भी हिचकिचाती हैं।

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सोमवार, 4 जुलाई 2011

महिलाओं को पाने की जद्दोजहद ने पुरूषों को बलशाली बनाया!

आम तौर पर महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले नैसर्गिक और प्राकृतिक रूप से ही कमजोर माना जाता है, लेकिन हाल के एक शोध से पता चला है कि महिलाओं को पाने की लड़ाई में अपने प्रतिद्वंद्वी पर वर्चस्व स्थापित करने की जद्दोजहद में ही पुरुषों का माथा और जबड़ा ज्यादा मजबूती से विकसित हुआ।



शोध के अनुसार अतीत में अपने साथी को पाने के लिए पुरुषों को शारीरिक ताकत का इस्तेमाल करना पड़ता था। इस क्रम में मजबूत जबड़े और मोटी खोपड़ी वाले पुरुष ही महिला साथी को पाने की लड़ाई में विजेता होते थे। इसी क्रम में क्रमिक विकास की वजह से हुए अनुकूलन के कारण कालांतर में भी पुरुषों का सिर और जबड़ा महिलाओं की अपेक्षा मजबूत विकसित होता चला गया। शोध में यह भी दावा किया गया है कि इसी क्रमिक विकास की वजह से पुरुषों की मांसपेशियां महिलाओं की अपेक्षा अधिक विकसित हुईं, जिसकी वजह से उनकी कद काठी महिलाओं के मुकाबले अधिक मजबूत और लंबी हुई।

इवोल्यूशन एंड ह्यूमन बिहेवियर शोध पत्रिका में प्रकाशित डॉ डेविड पुट्स के शोध के अनुसार मनुष्य की प्रजाति में ही नर में मांसपेशियां और मादा में वसा कोशिकाओं की वृद्वि देखी जा सकती हैं, जबकि अन्य प्रजातियों में नर और मादा में सभी प्रकार की कोशिकाओं का विकास समान रुप से हुआ है। पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय के डॉ पुट्स के बयान को रेखांकित करते हुए लंदन का डेली टेलिग्राफ लिखता है, सामान्यत: पुरुष महिलाओं की अपेक्षा 15 प्रतिशत से अधिक लंबे नहीं होते है, लेकिन ताकत के मुकाबले में लगभग शत प्रतिशत पुरुष महिलाओं से ज्यादा मजबूत होते है।

पुट्स के मुताबिक पुरुष महिलाओं की अपेक्षा अधिक आक्रामक होते है कुछ घुमंतू समुदाय में तो 30 प्रतिशत पुरुष मरने मारने की हद तक आक्रामक होते हैं। उनका मानना है कि भारी आवाज महिलाओं को आकर्षित करती है, लेकिन वास्तव में यह पुरुषों के वर्चस्व का प्रतीक है। भारी आवाज मर्द को शक्तिशाली और गंभीर बनाती है। यहां तक कि कई बार आवाज का भारीपन यौन आकर्षण से भी अधिक प्रभावी होता है। अन्य प्रजातियों की तुलना में इन्सानों के पास अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ झगड़ा करने के लिए नुकीले पंजे और दांत नहीं होते, लेकिन इस काम के लिए उन्होंने धनुष बाण, तलवार और चाकू जैसे हथियारों का निर्माण किया।

ड़ॉ पुट्स का मानना है कि हवा में रहने वाले पक्षी और पानी में रहने वाले जलचर प्राणी अपने मादा साथी को हासिल करने के लिए शारीरिक प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते, क्योंकि उनके सामने एक समय में अनेक प्रतिद्वंद्वी मौजूद होंगे, जिनपर विजय हासिल कर पाना उनके लिए संभव नही होगा।

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रविवार, 3 जुलाई 2011

तीन माह का शिशु सोते समय भी आवाज पहचान सकता है

तीन माह का बच्चा सोते समय भी किसी व्यक्ति की दु:खभरी या सामान्य आवाज को पहचान सकता है। ब्रिटिश वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है। यह शोध किंग्स कॉलेज लंदन के शोधकर्ताओं ने किया है। उनका मानना है कि इस अध्ययन के नतीजों से भविष्य में शोध के जरिए दिमाग के कामकाज व विकास और ऑटिज्म जैसी बीमारियों के संबंध में पता लगाने में मदद मिल सकती है। शोधकर्ता के अनुसार मानवीय आवाज काफी महत्वपूर्ण सामाजिक संकेत होती है। दिमाग बहुत कम उम्र में ही इसे समझने की विशेषज्ञता दिखाना शुरू कर देता है।

शोधकर्ताओं ने जब बच्चों को सामान्य मानवीय आवाजें सुनवाईं तब उनके दिमाग का वह हिस्सा सक्रिय हो गया जो बड़े लोगों में मानवीय आवाजों को सुनने के बाद सक्रिय होता है। बच्चों को जब रोने की आवाज सुनाई गई तो उनके दिमाग का वह हिस्सा सक्रिय हो गया जो बड़ों में भावुक बातों को सुनने के बाद होता है। इसका मतलब है कि बच्चे भी विभिन्न भावनात्मक स्थितियों को समझने और उस पर सहानुभूति जताने की क्षमता रखते हैं।

शोधकर्ता डेक्लैन मर्फी ने बताया, ‘हम इस क्षेत्र में अब आगे शोध कर रहे हैं ताकि समझ सकें कि दिमाग के विकास में अंतर कैसे आता है और क्या हम सटीकता से ऐसे बच्चों की पहचान कर सकते हैं जिन्हें आगे चलकर ऑटिज्म जैसे विकार होने का खतरा है।’

अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने 3 से 7 माह के बच्चों के दिमाग का स्कैन सोते समय किया। शोधकर्ताओं ने खांसते वक्त और जम्हाई लेते वक्त की सामान्य आवाजें बच्चों को सुनाईं। उन्हें पानी और खिलौनों की आवाजें भी सुनाई गईं। दोनों तरह की आवाजों के प्रति बच्चों के दिमाग की प्रतिक्रिया की तुलना की गई।

अधिक जानकारी यहाँ मौज़ूद है

शनिवार, 2 जुलाई 2011

एक अनार सौ बीमार ठीक कर सकता है

एक शोध के अनुसार अनार का जूस आपके ऑफिस के तनाव को कम कर सकता है। यह जूस हृदय गति को भी नियंत्रित करता है और साथ ही सकारात्मक सोच भी प्रदान करता है।

शोध के दौरान वैज्ञानिकों ने लोगों के एक समूह को 2 सप्ताह तक 500 मिलीलीटर अनार का जूस पीने को कहा। शोध की शुरुआत और अन्त में उनकी हृदय गति को मापा गया। उनके स्वभाव, भावना और काम के बारे में भी पूछा गया। पता चला कि अनार का जूस पीने के बाद उन सभी में सकारात्मक बदलाव देखे गए। वे पहले के मुकाबले ज्यादा उत्साही, प्रेरित और सक्रिय हो गए।

क्वीन मारग्रेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता डॉ. अहमद अल दुजैली ने कहा कि यह तथ्य बिलकुल सही है कि अनार का जूस आपको तनाव से राहत देता है। यह आपको स्वस्थ भी रखता है। हमने पाया कि अनार का जूस अन्य जूस के मुकाबले सेहत के लिए कहीं ज्यादा फायदेमंद है।

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शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

बीयर पीने वालों को मच्छर कुछ ज़्यादा ही काटते हैं

बीयर प्रेमियों के लिए एक चेतावनी है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि अगर आपने अल्कोहल का सेवन कर रखा है तो मच्छर और अन्य कीड़े आपकी ओर 15 प्रतिशत ज्यादा आकर्षित होते हैं। फ्रांस के आई आर डी अनुसंधान केंद्र में वैज्ञानिकों की एक टीम ने पाया है कि अल्कोहल के सेवन से सांसों की गंध की ओर कीड़े ज्यादा आकर्षित होते हैं।


वैज्ञानिकों का मानना है कि मच्छरों ने शराब की दुर्गंध को पहचानना सीख लिया है, क्योंकि इसका सेवन कर चुके लोग काटने पर प्रतिरोध कम करते हैं डेली मेल की एक रिपोर्ट के अनुसार इस अध्ययन से मलेरिया से बचाव किया जा सकेगा जिससे दुनिया भर में 780000 लोगों की मौत हो जाती है।

अनुसंधानकर्ताओं ने इस अध्ययन का परीक्षण अफ्रीका में 2500 ऐनाफीलिस मच्छरों पर किया। उन्होंने 20 से 43 वर्ष के 25 लोंगो को चुना और उनको स्थानीय शराब पिलाई। उन्होंने पाया कि उनकी ओर 15 प्रतिशत ज्यादा मच्छर उडे़ थे।

एक पत्रिका में उन्होंने कहा कि बीयर के सेवन से अफ्रीका में मलेरिया के मुख्य कारक ऐनाफीलिस गैम्बी ज्यादा आकर्षित होते हैं।

संपूर्ण रिपोर्ट यहाँ पढ़ी जा सकती है या पीडीएफ रूप में यहाँ से डाउनलोड की जा सकती है

बुधवार, 29 जून 2011

भारतीय महिलाएं दुनिया में सबसे ज़्यादा तनाव का शिकार हैं

पिछले दिनों दुनिया के प्रमुख विकसित एवं विकासशील देशों में आज की भागदौड़ और आपाधापी से होने वाले तनाव के बारे में किए गए इस सर्वेक्षण में कुल 21 विकसित एवं विकासशील देशों को शामिल किया गया था। और इस सर्वेक्षण के अनुसार भारत की सर्वाधिक महिलाएं तनाव में रहती हैं।


विश्व सूचना एवं विश्लेषक कंपनी नीलसन की २८ जून को टोक्यो में प्रकाशित सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार सबसे ज्यादा 87 प्रतिशत भारतीय महिलाओं ने बताया कि ज्यादातर समय वे तनाव महसूस करती हैं जबकि 82 प्रतिशत भारतीय महिलाओं ने कहा कि उन्हें आराम करने का वक्त नहीं मिलता।

भारत में तनावग्रस्त महिलाओं की संख्या ज्यादा होने के बावजूद वे वित्तीय स्थिति में सुधार की संभावनाओं के मद्देनजर अपनी पुत्रियों को अच्छी शिक्षा दिलाने के प्रति आशान्वित भी पाई गईं। भारतीय महिलाओं ने कहा कि वे अगले पांच सालों में अपनी जरूरतों पर ज्यादा खर्च करने की स्थिति में होंगी। इनमें से 96 प्रतिशत ने अतिरिक्त खर्च कपड़ों पर करने का अनुमान व्यक्त किया, जबकि 77 प्रतिशत स्वास्थ्य एवं सौंदर्य प्रसाधनों पर और 44 प्रतिशत ने घरेलू इस्तेमाल के इलेक्ट्रानिक उपकरणों पर खर्च करने का संकेत दिया।

फरवरी से अप्रैल तक भारत, तुर्की, रूस, दक्षिण अफ्रीका, नाईजीरिया, चीन, थाईलैंड, मलेशिया, मैक्सिको, ब्राजील, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, स्वीडन, जापान, आस्ट्रेलिया तथा दक्षिण कोरिया में किए गए इस सर्वेक्षण के दौरान साढे़ छह हजार महिलाओं से बातचीत की गई। तनावग्रस्त 74 प्रतिशत महिलाओं के साथ मैक्सिको दूसरे तथा 69 प्रतिशत महिलाओं के साथ रूस तीसरे स्थान पर है।

मूल समाचार यहाँ है

मंगलवार, 21 जून 2011

मुस्कुराईये, क्योंकि आपका काम होने वाला है

चेहरे पर आई हल्की सी मुस्कुराहट में गजब की ताकत होती है और यह बहुत दूर तक असर करती है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के एक शोध के अनुसार, मुस्कुराहट सिर्फ दिल को सुकून ही नहीं देती, इसका सेहत से भी सीधा संबंध है। मात्र दो इंच की मुस्कुराहट से चेहरे की दजर्नों नसों का व्यायाम हो जाता है। लगातार मुस्कुराते रहिए, इससे चेहरे पर झुर्रियां नहीं पड़तीं और हमेशा रौनक बनी रहती है।


मुख्य शोधकर्ता जॉन डाल्टन का यह शोध कहता है कि मुस्कुराने से चेहरे से लेकर गर्दन तक की मांसपेशियों का व्यायाम हो जाता है। मुस्कुराते वक्त चेहरे की सभी मांसपेशियों में खिंचाव आता है, जिससे जल्दी झुर्रियां नहीं पड़तीं। एक अन्य शोध के मुताबिक मुस्कुराकर कही गई बात सामने वाले पर अच्छा प्रभाव डालती है। मुस्कुराकर कहा गया काम हो या फरमाइश, उसके पूरा होने की संभावना 50 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।

बोस्टन यूनिवर्सिटी के सामाजिक विज्ञान के प्रोफेसर डी. क्लचर ने इस शोध के लिए 10,000 लोगों को सैंपल सर्वे के जरिए चुना। उनमें से 85 प्रतिशत का मानना है कि उनके जीवन में कई ऐसे मौके आए जब मुस्कुराकर बात करने से उनका बिगड़ता हुआ काम भी बन गया। बाकी 15 प्रतिशत का मानना है कि मुस्कुराहट बहुत ज्यादा काम नहीं आती।

शोध में शामिल लोगों से जब पूछा गया कि अगर कोई उनसे मुस्कुराते हुए किसी काम के लिए कहे तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होती है इसके जवाब में 75 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वह अपने काम नहीं करने के निर्णय पर दोबारा विचार करते हैं तथा 65 प्रतिशत लोगों ने माना कि वह उस काम को कर देते हैं। इस शोध की मानें तो इसका मतलब यह हुआ कि अगर किसी को मुस्कुराकर कोई काम करने के लिए कहा जाए तो उसके होने की संभावना 65 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।

वैसे हर वक्त मुस्कुराना भी ठीक नहीं है। किसी के गम में शरीक होने जाएं या आफिस में कोई काम बिगड़ जाने पर बॉस की डांट खा रहे हों तो मुस्कुराने से परहेज ही करें, वर्ना लेने के देने भी पड़ सकते हैं।

रविवार, 19 जून 2011

लम्बे समय टेलीविज़न देखते रहिये, मौत ज़ल्दी आएगी !!

शोधकर्ताओं का कहना है कि जो लोग लम्बे समय तक बैठे टेलीविज़न देखते रहते हैं उनमें डायबिटीज़ और हृदय रोग का ख़तरा बढ़ जाता है. इस शोध में पाया गया कि हर दो घंटे अधिक टीवी के सामने बैठने से मधुमेह रोग का ख़तरा 20 प्रतिशत और हृदय रोग का ख़तरा 15 प्रतिशत बढ़ता है. टीवी बंद करके कुछ मेहनत का काम करने से एक हज़ार में से दो लोग इन बीमारियों से बच सकते हैं. शोधकर्ताओं का कहना है कि टीवी देखना अपने आप में कोई समस्या नहीं है लेकिन जो लोग घंटो टीवी के आगे बैठे रहते हैं उनकी जीवन शैली आमतौर पर निष्क्रिय होती है इसलिए उनके मोटे होने की संभावना भी बढ़ जाती है.


शोधकर्ता कहते हैं कि टीवी देखने जैसी अन्य गतिविधियों का भी समान असर होता है जैसे कम्प्यूटर पर गेम्स खेलना या इंटरनेट देखना. उन्होने आठ बड़े शोधों के निष्कर्षों की जांच की जिनमें 175,000 लोग शामिल किए गए थे और देखा कि टीवी देखने से कौन सी बीमारियां जुड़ी हुई हैं. उन्होने पाया कि जो लोग दो घंटे प्रतिदिन से अधिक देर तक टीवी देखते हैं उन्हे टाइप टू डायबिटीज़ और हृदय रोग का ख़तरा बढ़ जाता है और तीन घंटे प्रतिदिन से अधिक टीवी देखने से समय से पहले मृत्यु का ख़तरा बढ़ता है. अनुसंधानकर्ताओ का अनुमान है कि हर दो घंटे अधिक टीवी देखने से एक लाख में से 38 लोगों के दिल की बीमारी से मरने और 176 लोगों के डायबिटीज़ विकसित करने का ख़तरा बढ़ता है. इस बात के प्रमाण हैं कि अगर व्यक्ति शारीरिक रूप से सक्रिय रहे तो उसके टाइप टू डायबिटीज़ विकसित करने का ख़तरा 60 प्रतिशत कम हो जाता है.

संदेश बड़ा सीधा सा है. टीवी देखना कम करने से टाइप टू डायबिटीज़, हृदय रोग और जल्दी मौत का ख़तरा घटता है. चाहे अनचाहे हम सभी की शामें टेलीविज़न के सामने सोफ़े पर बैठे हुए क्रिस्प और बिस्कुट खाते और मीठे पेय पदार्थ या शराब पीते बीतती हैं. लेकिन ये बहुत ज़रूरी है कि ये हमारी रोज़ की दिनचर्या न बनने पाए।

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शनिवार, 18 जून 2011

लम्बी उम्र चाहिए तो धूप में रहिये

आजकल आ रहे विज्ञापनों में अपनी क्रीम बेचती कंपनिया यह कहती पायी जाती हैं कि दो मिनट की धूप भी आपके लिए नुकसानदायक है. लेकिन सूर्य की रोशनी से अगर आप डरते हैं तो जरा इस शोध पर गौर कीजिए। एक नए अध्ययन में पता चला है कि सनबाथ लेने से उम्र बढती है। अध्ययन में पाया गया कि जो महिलाएं नियमित तौर पर धूप स्त्रान करती हैं, उनके ज्यादा दिनों तक जीवित रहने की संभावना रहती है।


स्वीडन के लुंड विश्वविद्यालय के शोधकर्तायों ने अपने शोध के माध्यम से यह साबित किया है कि धूप स्त्रान से सिर्फ विटामिन-डी ही नहीं मिलता बल्कि खून के थक्के जमने, मधुमेह और कुछ प्रकार के ट्यूमरों के खिलाफ शरीर को जरूरी प्रतिरोधी क्षमता देता है।

यह इम्‍यून सिस्‍टम को मजबूत बनाता है। लेकिन हमेशा सुबह की धूप का ही सेवन करें।

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गुरुवार, 16 जून 2011

बेटी चाहते हैं ? सुन्दर पार्टनर ढूंढिए

क्या आप भी बेटी चाहते हैं अगर हां तो अपने लिए एक सुन्दर पार्टनर तलाश कीजिए। क्योंकि एक शोध के मुताबिक सुन्दर दिखने वाले जोड़ों की बेटी पैदा होने की संभावना ज्यादा होती है। रिप्रोडक्टिव साइंसेज में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार सुन्दर औरतों और मर्दों में कम सुन्दर दिखने वालों की तुलना में बेटी होने की संभावना ज्यादा होती है।

(एक प्रतीकात्मक चित्र)

लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की विकासवादी मनोविज्ञानी सातोषी कानजवा ने मार्च 1958 में ब्रिटेन में जन्मे 1700 बच्चों का अध्ययन किया है। उन्होंने सभी बच्चों के बारे में उनके जीवन के अनेक स्तरों का अध्ययन किया। अध्ययन में यह देखा गया कि स्कूल और कॉलेज में इन बच्चों को उनके शिक्षकों ने सुन्दर कहा या बदसूरत। और 45 साल की उम्र में इन्हीं लोगों से उनके बच्चों और बच्चों के लिंग के बारे में पूछा गया।

सभी आंकड़ों को जमा करने के बाद कानजवा ने पाया कि अध्ययन के लिए लिए गए नमूने वाले लोगों में से 84 प्रतिशत लोगों को बेटे और बेटियां दोनों हुई, जबकि जो लोग खूबसूरत नहीं थे उन्हें बेटे ज्यादा हुए।

कानजवा ने कहा कि शारीरिक तौर पर सुन्दर होना कन्या शिशु तय करने के लिए एक मजबूत निर्धारक है। औसतन बदसूरत लोगों में से 56 में बेटे के माता-पिता बनने की संभावना सबसे ज्यादा होती है। उनका मानना है कि हम बच्चों के लिंग को सुन्दरता के साथ जोड़कर जिस लिंग के बच्चे चाहें पैदा कर सकते हैं।

मर्दों के लिए यह बात हमेशा आसान रहती है क्योंकि वे शादी के रिश्ते में हों या फिर अफेयर की बात हो अपने लिए एक सुन्दर पार्टनर ही खोजते हैं। मगर औरतें सिर्फ अफेयर के लिए ही सुन्दरता को देखती हैं, दीर्घकालिक बंधन के लिए वे हमेशा पैसे, सामाजिक स्थिति जैसी चीजों को देखती हैं

मंगलवार, 14 जून 2011

ताकत चाहिए तो देखिए लाल

अपनी शारीरिक क्षमता और गति बढ़ानी है तो पेश है एक बेहद आसान उपाय। एक नए अध्ययन के मुताबिक, उपाय है लाल रंग देखना। इमोशन जर्नल के हालिया अंक के मुताबिक, वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में पाया कि इंसानों को जब लाल रंग दिखाया जाता है तो उनकी प्रतिक्रिया ज्यादा तेज और मजबूत हो जाती है।


वैज्ञानिकों का कहना है कि यह खोज भारत्तोलन जैसे खेलों में उपयोगी साबित हो सकता है, जिसमें शक्ति और तेजी की जरूरत पड़ती है। अध्ययन करने वाले दल के अगुवा और न्यूयॉर्क के रोचेस्टर विश्वविद्यालय में मनोवैज्ञानिक एंड्रयू इलियट के हवाले से डेली एक्सप्रेस ने बताया, लाल हमारी शारीरिक प्रतिक्रियाओं को तेज करता है क्योंकि इसे खतरनाक रंग माना जाता है।

इससे पहले के अध्ययनों में कहा गया था कि लाल रंग हानिकारक होता है और लाल कमीज पहने विरोधियों से एथलीट के हारने की आशंका ज्यादा होती है और यहां तक की परीक्षा के पहले लाल रंग दिखाने से छात्रों का प्रदर्शन फीका पड़ जाता है।

मूल समाचार यहाँ मौजूद है

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

ऑक्सीटोसिन वाले दूध से दूसरे समुदायों और जातियों के प्रति विद्वेष होता है!!!

नीदरलैंड में एम्सर्टडम विश्विद्यालय के शोधकर्ताओं का कहना है कि अगर दुधारू पशु से ज्यादा दूध लेने के लिए उसे 'ऑक्सीटोसिन' का इंजेक्शन दिया जाए तो उस दूध का सेवन करनेवाले में कई विकार पैदा हो सकते हैं। शोध के मुताबिक़ इस तरह के दूध के सेवन से अपने समुदाय और जाति को दूसरे से श्रेष्ठ समझने का भाव बलवती होता है।


ये शोध हाल में अमरीकन एसोसिएशन ऑफ़ एडवांसमेंट ऑफ़ साइंस की पत्रिका 'प्रोसीडिंग्स नेशनल अकेडमी ऑफ़ साइंस' में प्रकाशित हुआ है। यह उल्लेखनीय है कि भारत में कई स्थानों पर दूध विक्रेता और पशुपालक अपने मवेशियों में दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए नियमित तौर पर ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन का इस्तेमाल करते हैं।

जोधुपर स्थित जेएनवी विश्विद्यालय में वनस्पति विज्ञान के प्रमुख प्रोफ़ेसर नरपत शेखावत कहते है कि भारत में ऐसी दवाइयों पर लगाई गई रोक को सख्ती से पालन किया जाए क्योंकि हम एक जाति समुदायों वाले विविधपूर्ण समाज का हिस्सा हैं। नरपत शेखावत कहते हैं, ''मुझे लगता है हाल के वर्षो में जातीय विवाद और द्वंद जिस स्तर पर उभरा है उसमें इस तरह के दूध के इस्तेमाल ने मदद की होगी इस बात से पूरी तरह से इनकार नहीं किया जा सकता है.''

अब तक ऑक्सीटोसिन को ऐसा रसायन माना जाता था जो जानवरों में अपने बछड़े के प्रति प्रेम का भाव का पैदा करता है जिससे उसे ज़्यादा दूध उतरता था। लेकिन अब शोधकर्ताओं ने एक नई बात पाई है कि जहाँ ये अपने समुदाय के भीतर एक दूसरे के प्रति प्रेम और विश्वास को बढ़ावा देता है वहीं दूसरे समुदायों और जातियों के प्रति अविश्वास का भाव का निर्माण करता है।

शोध के अनुसार दूसरे समुदायों के प्रति पूर्वाग्रह की धारणा उत्पन्न होने से जातीय झगडे़ बढ़ सकते हैं।

रिपोर्ट का सारांश यहाँ पढ़ा जा सकता है। PDF में पूरी रिपोर्ट कुछ शर्तों के साथ यहाँ मौज़ूद है


(लेखांश सौजन्य: बीबीसी वेबसाईट)

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

विदड्रॉल सिंड्रोम से जूझती फेसबुक पीढ़ी

वैज्ञानिकों ने नेट प्रेमी पीढ़ी के लोगों के बीच इस बात को देखने की कोशिश की है कि इनका इंटरनेट से दूर जाना क्या असर दिखाता है। इस बात के निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए शोध में शामिल लोगों से ई-मेल, टैक्स्ट मैसेज, फेसबुक, ट्विटर,मोबाइल फोन और आईपॉड से तकरीबन 24 घंटे दूर रहने को कहा गया और इसके बाद इन लोगों में जो लक्षण देखे गए,वह काफी हद तक उसी तरह थे,जैसे नशे या धूम्रपान की लत छोड़ने वालों में देखे जाते हैं।


इसे जानकारों ने ‘विदड्रॉल सिंड्रोम’ नाम दिया है। शोधकर्ताओं के अनुसार इन लोगों में सिर्फ मानसिक ही नहीं शारीरिक तौर पर भी विदड्रॉल सिंड्रोम देखने में आया है। इन लोगों से जब उनकी अवस्था के बारे में पूछा गया तो कुछ ने ड्रग्स छोड़ने की आदत जैसा तो कुछ ने डाइटिंग पर जाने की तरह महसूस होने की बात कही।

शोधकर्ता इन बातों को न्यूरोलॉजिस्ट्स और साइकोलॉजिस्ट्स द्वारा लंबे समय से बताए जा रहे इंटरनेट,कंप्यूटर गेम्स और सोशल नेटवर्किग साइट्स के होने वाले दुष्प्रभावों से जोड़कर देख रहे हैं। विशेषज्ञ इसे ‘नेट जनरेशन’ का नाम देते हैं, जो टीनएज और युवा वय लोगों से बनी है।